दोस्तों आज हम सीखेंगे कि क्रूस की कथा क्या है ? | What does the cross mean to you sermon क्रूस की कथा नाश होने वालों के लिए मूर्खता है …तो आइये शुरू करते हैं.
क्रूस की कथा क्या है ?
क्योंकि क्रूस की कथा नाश होने वालों के निकट मूर्खता है, परन्तु हम उद्धार पाने वालों के निकट परमेश्वर की सामर्थ है, (1 कुरु. 1:18)
यीशु मसीह का क्रूस आज भी बहुतों के लिए एक सवाल बन कर खड़ा हुआ है. यह बीते इतिहास में भी ऐसा ही था. कई लोगों को क्रूस को देखकर क्रोध आता है तो कुछ लोगों को तरस आता है.
कई लोग असमंजस में हैं कि आखिर यीशु मसीह जैसे नेक और भले व्यक्ति को क्रूस पर क्यों मरना पड़ा?? यह तो बहुत समय पहले हुई घटना है तो वह आज हमारे समय में इसका क्या औचित्य है??
यह सवाल पौलुस के दिनों में भी ऐसा ही था. यूनानी लोग जो अपने दर्शनशास्त्र पर भरोसा और घमंड करते थे.
उनको यह बात बिलकुल समझ में नहीं आ रही थी कि, आखिर महान परमेश्वर एक मनुष्य कैसे बन सकता है.
यह उनके लिए मूर्खता की बात थी. जिस प्रकार आज के लोगों को भी सुसमाचार का संदेश समझ में नहीं आ रहा है.
पर यह परमेश्वर का अनुग्रह हम पर हुआ जो यह तेजोमय सुसमाचार का प्रकाश हम पर चमका और हमें उसे बूझने की समझ मिल गई.
जो ज्ञान सदियों से गुप्त था वह उसने अपनी संतानों पर प्रगट कर दिया. और हमें यह समझ में आया कि हम खोये हुए थे
और मसीह यीशु हमें ढूंढने के लिए आया और हमारे पापों के लिए हमारे बदले में अपने प्राणों को दे दिया.
उसके बिना हमारे पास कोई आश नहीं थी. लेकिन अब उसमे हमारे पास दुनिया की सबसे बड़ी धरोहर है.
उसी के कारण हम परमेश्वर की सन्तान बन गए…हमारा टूटा रिश्ता अपने पिता से फिर से जुड़ गया.
हमें भली भाँति मालूम है यह अनुग्रह से हुआ है, केवल उसके अनुग्रह से…हम अनंत जीवन और आनन्दमय जीवन किसी और रीति से कदापि नहीं पा सकते थे. हम इसलिए क्रूस की कथा बड़े प्यार से सुनाते हैं.
इसलिए नहीं कि हम इसके योग्य हैं या हम बहुत ज्ञानी समझदार है बल्कि इसलिए कि उसने हमसे प्यार किया…
यीशु के जैसा स्वभाव रखें | हिंदी बाइबिल संदेश
यदि कोई यह कहता है, कि मैं उस में बना रहता हूं, उसे चाहिए कि आप भी वैसा ही चले जैसा वह चलता था. (1 यूहन्ना 2:6)
किसी ने क्या खूब कहा है, एक हजार किलो बातें करने से अच्छा है एक सौ ग्राम काम किया जाए. कहने का मतलब है बातें ही बातें करने से अच्छा उन बातों में अमल करना है. यह सिद्धांत जीवन के हरेक पहलू में कारगर है.
और आत्मिक जीवन में तो सबसे ज्यादा लागू होता है. तो उपरोक्त वचन में इसका क्या अर्थ है कि जैसा वह चलता था हमें भी चलना चाहिए?
इसकी पांचवी आयत प्रेम में और आज्ञाकारिता के विषय में बताती है. प्रभु यीशु किस प्रकार आज्ञाकारिता में चला. बचपन से ही यीशु मसीह ने अपने आपको पिता परमेश्वर की आज्ञा में चलने को समर्पित किया था.
अनेक बार यीशु मसीह के पास ऐसे अवसर आये जब वह कहीं जाकर चमत्कार करके प्रसिद्धि पा सकता था या फेमस हो सकता था, लेकिन यीशु ने उन अवसरों को स्पष्ट रूप से नकार दिया.
जब उसे पिता परमेश्वर की आज्ञाकारिता के कारण लोगों की निंदा सहना पड़ा लेकिन उस समय भी यीशु अपनी आज्ञाकारिता से एक इंच भी न डगमगाया.
जब शैतान ने यीशु के सामने सारे संसार का वैभव दिखाकर उसे देने का ऑफर रखा उसने शैतान को साफ़ इनकार कर दिया. उसे अपने पिता की इच्छा को पूरा करने हेतु उस सकरे मार्ग से कोई नहीं हटा पाया.
परमेश्वर के अगम्य प्रेम को दिखाते हुए उसने पापियों को गले से लगाया, कोढियों को छुआ, व्यभिचारिणी स्त्री को माफ़ किया, अंधे, लंगड़े, बीमार और चुंगी लेने वालों के साथ संगती किया.
वह उनसे भी प्यार किया जो समाज से निकाले हुए कुचले और दबे हुए लोग थे. जब हम यीशु के समान चलने की कोशिश करते हैं तब हमारा दिल परमेश्वर के प्रति आदर और प्रेम से भर जाता है.
हम समाज के उन लोगों को देखना और समझना शुरू कर देते हैं, जिन्हें कोई नहीं देखता और कोई उनके विषय में नहीं सोचता.
Conclusion
जब हम यीशु मसीह को सचमुच जानना शुरू करते हैं वो हमारे दिल को पूरी रीती से बदल देता है. आइये अपने आस पास ऐसे लोगों को देखना शुरू करें जिन्हें समाज में कोई नहीं पूछता जिन्हें आपके प्यार की जरूरत है…
स्वयं से सवाल करें ऐसे लोगों को यदि यीशु देखता तो क्या करता?
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