बाइबल के नए नियम में चारों सुसमाचार का इतिहास | विवरण | New Testament Survey in Hindi (Part-2)

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दोस्तों आज हम बाइबल के नए नियम Hindi bible study में चारों सुसमाचार के विषय में पढेंगे. सुसमाचार का अर्थ, उद्देश्य और विशेषताओं का अध्ययन करेंगे. इसके पहले भाग में हमने पवित्र बाइबल नया नियम का इतिहास विवरण और उसकी राजनैतिक धार्मिक और सामजिक पृष्ठिभूमि के विषय में अध्ययन किया है.

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सुसमाचार
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मत्ती रचित सुसमाचार का विवरण | Gospel of Matthew summary in hindi

बाइबल में मत्ती कौन था | who was matthew in the bible

लेखक :- माना जाता है कि बाइबल के नए नियम के इस सुसमाचार का लेखक प्रेरित मत्ती था. मत्ती एक चुंगी लेने वाला था. जो बाद में बारह प्रेरितों में एक बना (मत्ती 9:9, 10:3) मत्ती का दूसरा नाम लेवी था. (मरकुस 2:14-17, 3:18 लूका 5:27-32, 6:15)

मत्ती रचित सुसमाचार क्यों लिखा गया | Why was the Gospel of Matthew written

पाठक :- यह सुसमाचार यहूदी मसीहियों के लिए लिखा गया था.

उद्देश्य | Purpose | Audience of the Gospel of Matthew :-

इस सुमाचार में मत्ती का विशेष उद्देश्य यह कि, यहूदियों को यह बताऊं कि यीशु ही वह दाउद का पुत्र मसीह है, जिसकी वे बहुत समय पहले से प्रतीक्षा कर रहे थे, और जिसमें पुराने नियम की प्रतिज्ञाएं पूरी होती हैं, इस सुसमाचार का उद्देश्य पहले ही पद में मिलता है,

अब्राहम की सन्तान, दाउद की सन्तान यीशु मसीह की वंशावली (मत्ती 1:1) यह कथन यीशु मसीह को दो महान प्रतिज्ञाओं से जोड़ता है जिसे परमेश्वर ने अब्राहम और दाउद को दी थी.

अब्राहम से परमेश्वर की यह, प्रतिज्ञा की थी कि उसके द्वारा पृथ्वी भर के सारे कुल आशीषित होंगे (उत्पति 12:3)

और दाउद से परमेश्वर की प्रतिज्ञा थी कि एक राजा उसके सिंहासन पर सदा के लिए विराजमान रहेगा (2 शमुएल 7:13, 16.). ये दोनों प्रतिज्ञाएं यीशु मसीह में पूरी होती हैं.

यहूदी मसीहियों को बहुदा अविश्वासी यहूदियों द्वारा यह कहकर प्रताड़ित किया जाता था कि उनहोंने अपने पूर्वजों का धर्म त्याग दिया था. मती ने इन मसीहियों को यह संकेत करते हुए पुन: आश्वासन दिलाया कि वे वास्तव में पुराने नियम के धर्म से भटक नहीं गए. इसके विपरीत उनहोंने उसकी सच्चाई को पा लिया था.

उन्होंने यह समझ लिया था कि यीशु मसीह में ही पुराने नियम के धर्म की परिपूर्णता थी.

मत्ती रचित सुसमाचार की विशेषताएं | Significance of the Gospel of Matthew in hindi :-

1. यीशु मसीह में पुराने नियम की परिपूर्ति

यीशु कौन है जानने के लिए पढ़ें

यीशु मसीह में पुराने नियम की परिपूर्ति, यह मत्ती का एक मूल विषय है. मत्ती में अनेक उद्धरण हैं जो पुराने नियम से लिए गए हैं. मत्ती बहुधा इन उद्धरणों (reference) का परिचय एक कथन से टकराता है जो यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार पुराना नियम यीशु मसीह में पूरा हुआ (मत्ती 1:2, 2:15, 23, 4:14, 8:17, 13:35, 21:4, 27:9)

अन्य उद्धरणों के द्वारा भी यद्यपि उनसे यह कथन जुड़े नहीं हैं, मत्ती यह प्रस्तुत करता है कि यीशु के जीवन की आंशिक बातें भी पुराने नियम के अनुसार ही घटी हैं. यहाँ तक कि यीशु स्वयं बोलते हिं कि उनका लक्ष्य व्यवस्था और भविष्यवक्ताओं की पुस्तकों को पूरा करना है (5:17)

2. मत्ती रचित सुसमाचार एक व्यवस्थित सुसमाचार

मत्ती का सुसमाचार एक व्यवस्थित सुसमाचार है जिसमें विषयवस्तु को इस प्रकार रखा गया है. कि वह शिक्षा देने के लिए उपयोगी है. बाइबिल के विद्वानों के अनुसार संभवत: मत्ती ने स्वयं इस पुस्तक की साम्रगी को अपनी कलीसिया में सिखाने के लिए इस्तेमाल किया होगा.

यह विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि मत्ती में यीशु मसीह के उपदेशों के पांच समूह हैं. जिनमें हर एक एक अंत में यह कथन मिलता है; “जब यीशु यह बातें कह चूका (7:28, 11:1 13:53, 19:1 26:1) अंतिम समूह के अंत में मत्ती लिखता है कि, “जब यीशु ये सब बातें कह चुका” (26:1) वे उपदेशो के पांच समूह इस प्रकार हैं

  1. पहाड़ी उपदेश —- अध्याय 5,6,7
  2. बारह चेलों को सेवाकार्य के लिए शिक्षा —- अध्याय 10:5-42
  3. स्वर्ग के राज्य के दृष्टांत —- अध्याय 13:1-52
  4. शिष्यता से संबधिंत शिक्षाएं —- अध्याय 16
  5. अंत के समय के विषय में शिक्षाएं —- अध्याय 24,25

(मत्ती यीशु मसीह को एक महान राजा और एक उत्तम शिक्षक के रूप में प्रस्तुत करता है)

3. स्वर्ग का राज्य

मत्ती रचित सुसमाचार में “स्वर्ग का राज्य ” वाक्यांश का इतना अधिक प्रयोग हुआ है जितना किसी अन्य सुसमाचार में नहीं हुआ है. क्योंकि यह “राजा का सुसमाचार है. इस सुसमाचार में यीशु को यहूदियों के राजा के रूप में दर्शाता है”.

4. कलीसिया

चारों सुसमाचार में से केवल मत्ती में हीं कलीसिया शब्द का प्रयोग किया गया है. (16:18, 18:17)

लेखन का समय : मत्ती रचित सुसमाचार लगभग 60 ई. या लगभग 80 ई. में लिखा गया.

मरकुस रचित सुसमाचार का विवरण | Gospel of Mark summary in hindi

लेखक : माना जाता कि मरकुस रचित सुसमाचार जैसा कि नाम से ही विदित है इस सुसमाचार का लेखक मरकुस था. जिसका पूरा नाम युहन्ना मरकुस ( John Mark) था. मरकुस आरम्भिक कलीसिया के एक प्रमुख परिवार सदस्य था.

ऐसा विश्वास किया जाता है कि आरम्भिक दिनों में शिष्य लोग मरकुस की माता के घर में एकत्रित होते थे. कुछ विद्वानों का विचार है, की यीशु ने अपने शिष्यों के साथ अंतिम भोज इसी घर में किया. (लूका 22:11-13, प्रेरितों के काम 1:13, 12:12)

मरकुस कुछ समय के लिए पौलुस और वर्न्बास के साथ उनकी मिशनरी यात्रा में सहयात्री बन गया था ( प्रेरितों 12:25, 13:-5). बाद में वह पतरस का सहयोगी बना और वह पतरस के साथ रोम तक गया (1पतरस 5:13) अंत में जब पौलुस जेल में मृत्यु दण्ड की प्रतीक्षा कर रहा था, तब मरकुस उसका सहायक बना (कुलु 4:10-11)

मरकुस रचित सुसमाचार के पाठक : –

मरकुस रचित सुसमाचार रोमी पाठकों के लिए लिखा गया. ऐसा माना जाता है कि मरकुस ने स्थानीय मसीही लोगों की आवश्यकताओं के प्रतिउत्तर में यीशु की कथा को जैसी उसने पतरस के मुख से सुनी थी लिखा दिया. क्योंकि इस सुसमाचार को रोमी लोगों के लिए लिखा गया, मरकुस ने मत्ती के समान यीशु मसीह से सम्बन्धित भविष्यवाणियों को प्रमाणित करने का प्रयास नहीं किया.

मरकुस रचित सुसमाचार के लिखने का उद्देश्य

इस सुसमाचार को लिखते समय मरकुस के पास सम्भवत: एक से ज्यादा उद्देश्य थे.

पहला :- गैर यहूदियों के लिए सुसमाचार उपलब्ध कराना ...क्योंकि रोम एक गैर यहूदी नगर था. यद्यपि रोम की कलीसिया में यहूदी मसीही भी शामिल थे.

मरकुस ने अपने सुसमाचार को इस प्रकार लिखा है कि उन गैर यहूदी मसीहियों को भी वह समझ में आये. माना जाता है कि मरकुस ने कलीसिया के बाहर के भी गैर-यहूदियों को मन में रखते हुए लिखा है ताकि वे भी सुसमाचार जाने.

दूसरा : – साताव का सामना करनेवालों के लिए प्रोत्साहन देना … मरकुस ने अह सुसमाचार उस सन्दर्भ में लिखा था, जब रोमी शासन द्वारा मसीहियों पर सताव बढ़ रहा था. इसलिए मरकुस ने अपने सुसमाचार में यीशु मसीह के जीवन तथा शिक्षाओं के द्वारा मसीहियों को यह स्मरण दिलाया कि उन्हें विरोध और सताव के समय बल और धीरज की आवश्यकता पड़ेगी. (3:21, 30, 8:34-38, 10:29, 30 , 13:9-13, 19:41 , 15 37)

तीसरा :- मसीही विश्वास की रक्षा करना … मरकुस यह बताना चाहता है कि मसीही लोग क्रांतिकारी और रूमी साम्राज्य के दुश्मन नहीं हैं, बल्कि वे उसके अच्छे नागरिक हैं. वे जिस यीशु का पीछा करते थे, वे गलत आरोपों में फसाया गया था. रोमी मनों से मसीहियत के प्रति गलतफहमियों को दूर करना सुसमाचार प्रचार कार्य को सुगम बनाने के लिए अनिवार्य था.

चौथा :- क्रूस का महत्व समझाने के लिए …मरकुस ने इस प्रशन का उत्तर देने का प्रयत्न किया है कि “मसीह होते हुए भी यीशु एक अपराधी की मौत क्यों मारा?” मरकुस यह सिद्ध करता है कि यह परमेश्वर की दिल की इच्छा और योजना थी कि मसीह दुःख उठाए. यीशु स्वयं जानते थे यद्यपि उनके चेले और अन्य लोग इस बात को उसके पुनरुत्थान तक समझ नहीं पाए थे. (मरकुस 8:31-33, 10:45)

मरकुस रचित सुसमाचार की विशेषताएं

  1. उपदेश से बढ़कर कार्य : इस सुसमाचार में यीशु मसीह के उपदेशों में से ज्यादा उसके कार्यों का वर्णन है.

2. पतरस का प्रभाव :- मरकुस के सुसमाचार को विषय वस्तु में पतरस की शिक्षाओं के प्रभाव को प्रकट करने वाली कई बातें शामिल हैं.

उदाहरण : यीशु की मृत्यु तथा जी उठने की चारो और घटने वाली घटनाओं के अतिरिक्त मरकुस में दी गई यीशु की अधिकांश सेवकाई गलील में के दिन रही, जहाँ पतरस का ग्रहनगर कफरनहूम था (1:21, 29 , 2:1, 9:31)

अन्य सुसमाचार की तुलना में मरकुस में पतरस की त्रुटियों का अधिक खुले रूप में वर्णन किया है (9:5, 6 14:16-72), जबकि ऐसी घटनाएं जो उसे प्रशंसा दिला सकती थी, छोड़ दिया गया (मत्ती 14:29, 16:17, मरकुस 6:45-51, 8:27-30, 31-33)

3. शब्द “और” तुरंत मरकुस के सुसमाचार में यूनानी शब्द “काई” जिसका अर्थ है “और” का प्रयोग बहुत बार हुआ है यह शब्द इस बात की ओर संकेत करता है कि यीशु मसीह की सेवकाई निरंतर चलने वाली थी. उसमें कोई रुकावट नहीं थी. इसी प्रकार एक और यूनानी शब्द “युतुस” जिसका अर्थ है, “तुरंत” का प्रयोग भी बहुत बार हुआ है, जो यीशु मसीह की कथा एक तीव्र गति देती है.

4. शब्दों और यहूदी विश्वासों व व्यवहारों की व्याख्या …इस सुसमाचार में कई इब्रानी और अरामी शब्दों का अनुवाद किया गया है (3:19. 5:41, 7:11, 15:22, 34) कई यहूदी विश्वासों और व्यवहारों की भी व्याख्या दी गई है (7:3-4, 12:18,42, 14:12, 15:42)

यह इसलिए है कि यह सुसमाचार रोम के गैर यहूदी विश्वासियों के लिए लिखा गया था और उनके लिए यह जरूरी था कि कुछ बातें विस्तार पूर्वक समझाई जाएं जिनसे केवल यहूदी लोग ही परिचित थे.

5. यीशु के जन्म का विवरण नहीं है :- मरकुस के सुसमाचार में यीशु मसीह के जन्म का कोई विवरण नहीं मिलता है, जबकि मत्ती और लूका में इसका विवरण मिलता है और यूहन्ना में यीशु के पूर्व अस्तित्व के विषय में विवरण है. यह सम्भत: इसलिए है कि मरकुस यीशु को एक सेवक के रूप में प्रस्तुत करता है और कोई भी व्यक्ति एक सेवक की वंशावली को जानने का इच्छुक नहीं होता.

मरकुस रचित सुसमाचार कब लिखा गया: अधिकतर बाइबिल विद्वानों के अनुसार यह सुसमाचार 60 ई. और 70 ई, के बीच लिखा गया था.

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लूका रचित सुसमाचार का विवरण | Gospel of Luke summary in hindi

लूका रचित सुसमाचार का लेखक | luke gospel in hindi

: माना जाता है कि इस सुसमाचार का लेखक लूका था. लूका एक गैर यहूदी था. नया नियम के लेखकों में लूका ही एक लेखक था जो यहूदी नहीं था. लूका एक वैध था (कुलु 4:14), किन्तु वह एक कुशल इतिहासकार भी बना. लूका पौलुस के सहकर्मियों में एक प्रमुख व्यक्ति था. (प्रेरितों 16:10-24, 20:5-6, 27:1, 28:16; 2 तिमु 4:11, कुलु 4:14) वह एक शिक्षित यूनानी व्यक्ति था.

लूका रचित सुसमाचार उद्देश्य | Luke gospel audience

लूका का उद्देश्य मसीहियत को उत्त्पत्ति के विषय में एक विश्वास योग्य और क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत करना था. लूका यह चाहता था.लूका यह चाहता था कि इस प्रकार थियुफिलुस यह समझे कि जो शिक्षा उसने मसीहियत के विषय पायी थी, वे कितना अटल है. (लूका 1:1-4)

लूका का विवरण इतना विस्तृत और लंबा था कि उसे दो पुस्तकों में बांटा दिया गया. प्रथम पुस्तक जो यीशु मसीह के जन्म से लेकर उसके स्वर्गारोहण की घटनाओं तक का विवरण देती हैं, उसे लूका के सुसमाचार के नाम से जानते हैं.

दूसरी पुस्तक जो यीशु के स्वर्गारोहण से लेकर पौलुस के रोम आने तक की घटनाओं का वर्णन करती है, उसे हम प्रेरितों के काम के नाम से जानते हैं. (प्रेरितों 1:1-2)

लूका रचित सुसमाचार की विशेषताएं | Interesting facts about Luke in hindi

1. सबसे क्रमबद्ध सुसमाचार

चारो सुसमाचार में यह सबसे क्रम से लिखा गया सुसमाचार है. अन्य सुसमाचारों के समान लूका ने भी यीशु की जीवनी लिखने का प्रयास नहीं किया है. फिर भी इस सुसमाचार में क्रमबद्ध तरीके से घटनाओं को रखा गया है.

2. उद्धार सबके लिए है

लूका दर्शाता है कि यद्यपि यीशु यहूदी जाति से था जिस उद्धार को वह लाया, वह किसी भी रीति से यहूदियों में बंधा नहीं था. उस उद्धार में गैर यहूदियों के प्रति कोई भेद भाव नहीं था और वह सब स्थानों के लोगों के लिए था.

उसका आधार जाति नहीं बल्कि मन फिराव था. (लूका 2:23, 3:6-8, 4:25,27, 17:11-18, 24:27) सामजिक श्रेणी के आधार पर भी कोई भेदभाव नहीं था. उद्धार सबके लिए समान रूप से उपलब्ध था.

3. तिस्कृत लोगों के बारे में विशेष उल्लेख

लूका की यह ख़ास विशेषता है कि वह सामाजिक रूप में प्रतिकूल परिस्थितियों में रह रहे विभिन्न प्रकार के लोगों का उल्लेख करता है, जिन्हें परमेश्वर की आशीष प्राप्त हुई. इसमें गुलाम (7:2-7), सामरी (10:30-37) (17:16) निर्धन (1:52-53, 2:7,24) (21:1-4) चुंगी लेने वाले, तथ स्त्रियाँ विशेष रूप से विधवाएं शामिल थी (18:13, 4:25)

4. प्रार्थना

लूका अपने सुसमाचार में प्रार्थना को बहुत महत्व देता है. लूका अन्य सुसमाचार लेखकों से अधिक यीशु मसीह की प्रार्थना के विषय में बताता है (3:21, 9:18, 18:1-8)

5. पवित्रात्मा

लूका के सुसमाचार में पवित्र आत्मा के विषय में बहुत उल्लेख हम पात हैं. (1:35, 41, 67, 2:25-26, 3:16)

6. भजन और कुछ विशेष घटनाएं और दृष्टांत :

केवल लूका ने अपने सुसमाचार में कुछ भजनों को शामिल किया है. जिनकों यीशु मसीह यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के जन्म से जुड़े हुए सम्पर्कों में विभिन्न व्यक्तियों ने गाया. (1:46-55, 1:68-79, 2:8-14)

लूका कई ऐसी घटनाओं व दृष्टांतो का भी वर्णन करता है जो केवल इसी सुसमाचार में पाए जाते हैं. उदाहरण: चरवाहों का यीशु को देखने जाना, बालक यीशु यरूशलेम के मन्दिर में, दयालू सामरी एवं उड़ाऊ पुत्र के दृष्टांत आदि.

यीशु का चित्रण | Characteristic of Jesus in Luke

लुका यीशु मसीह के एक सिद्ध मानव के रूप में प्रस्तुत करंता है. इस सुसमाचार में यीशु अपने आप को मनुष्य के पुत्र के नाम से सम्बोधित करते हुए दिखाई देते हैं. ( 5:24, 6:5, 7:24, 944, 55) यीशु का मानव होने के प्रमाण देने वाली और भी कई बातें इस सुसमाचार में हम पाते हैं.

उदाहरण यीशु एक बालक के रूप में माता पिता के अधीन रहा और स्वाभाविक रूप से बड़ा हुआ (2:40, 51, 52) वह परमेश्वर पर निर्भर होकर प्रार्थना करता था.(6:12, 9:18, 11:1) वह शहर को देखकर रोया (19:40) आदि.

लूका के अनुसार यीशु मसीह परमेश्वर का वह पुत्र है जो एक मनुष्य बनकर खोए हुए लोगों को ढूंढने और बचाने के लिए आया. उसकी सेवकाई खोए हुए लोगों के लिए तरस से भरी थी. वह ऐसा एक दयालु उद्धारकर्ता मनुष्य था जो पापियों के बीच में रहकर उनकी सहायता करने और उनके खातिर मरने के लिए आया (1:32, 3:22, 5:29)

लेखन का समय : अनेक बाइबल के विद्वान् मानते हैं कि यह सुसमाचार लगभग 60 ईस्वी में लिखा गया. कई अन्य मानते हैं कि यह लगभग 80 ईस्वी में लिखा गया था.

यूहन्ना रचित सुसमाचार का विवरण | Gospel of John summary in hindi

लेखक : माना जाता है कि इस सुसमाचार का लेखक यूहन्ना था जो यीशु के बाढ़ चेलों में से एक था. जिसके विषय में कहा गया है “शिष्य जिससे यीशु प्रेम करता था”. (13:23, 19:26, 21:7, 20:24)यूहन्ना के पिता का नाम जब्दी था ये मछुआरे थे (मत्ती 4:18-21, लूका 5:10)

यूहन्ना एवं उसके भाई याकूब को “गर्जन के पुत्र” (बुअनर्गिस) नाम दिया था (मर 3:37) यीशु के बाढ़ चेलों में ये एक आंतरिक झुण्ड था. जो विशेष तौर से में यीशु के निकट रहते थे. यूहन्ना इस झुण्ड का एक सदस्य था. इस झुण्ड में शेष दो चेले थे पतरस और यूहन्ना का भाई याकूब.

कलीसिया के आरंभिक दिनों में पतरस के साथ यूहन्ना ने प्रमुख अगुवाई का कार्यभार संभाला (प्रेरितों 1:13, 3:1-11, 4:13-20 गला 2:9) माना जाता है कि यूहन्ना अपने जीवन के अंतिम समय में इफिसुस नगर में था और वह बाढ़ प्रेर्तों में जीवत बचे रहने वाला अंतिम प्रेरित था.

यूहन्ना सुसमाचार लिखने का उद्देश्य

यूहन्ना का उद्देश्य यह था कि लोग यीशु को मसीह तथा परमेश्वर के पुत्र के रूप में विश्वास करें, तथा इस प्रकार वे उसके द्वारा अनंत जीवन को प्राप्त कर सकें (20:30-31)

यूहन्ना सुसमाचार की विशेषताएं | Important facts about the Gospel of John in Hindi

1. एक भिन्न सुसमाचार :

सहदर्शी (synoptic) सुसमाचारों की तुलना में यूहन्ना रचित सुसमाचार अपने आप में एक भिन्न पुस्तक है. इस पुस्तक में वर्णित अधिकांश घटनाएं सहदर्शी सुसमाचारों में नहीं पाई जाती. सहदर्शी सुसमाचारों की विषय वस्तु में अधिकांश बातें इसमें नहीं शामिल हैं.

सहदर्शी सुसमाचारों में यीशु की शिक्षाओं व कार्यों का महत्वपूर्ण स्थान है. जबकि यूहन्ना रचित सुसमाचार में यीशु के वार्तालापों का महत्वपूर्ण स्थान है . उदा. 1:14-17 यूहन्ना रचित सुसमाचार यीशु मसीह के मन और स्वभाव की सुसमाचारों की तुलना में अधिक गहराई पहचान करता है.

2. यीशु का ईश्वरत्व :

इस सुसमाचार में यीशु का ईश्वरत इतना अधिक है जितना दूसरे सुसमाचारों में नहीं मिलता है. एक अध्याय में यीशु के ईश्वरत्व का वर्णन मिलता है. इसके शुरूआती अध्याय में ही यह बताया गया है. कि यीशु परमेश्वर था. (1:1)

वह सृष्टि से पहले था. 1:2 और उसी के द्वारा सब सृष्टि हुई. 1:3 यहाँ यीशु को उस अनंत वचन के रूप में प्रस्तुत किया गया है. जिसमें यीशु ने देहधारी होकर मनुष्य के बीच में डेरा किया. 1:1, 14

इस सुसमाचार में यीशु मसीह के द्वारा कहे गए सात “मैं हूँ” कथन भी उसके ईश्वरत्व को दर्शाते हैं (6:35, 8:12, 10:9-11, 11:25, 14:6,) ये कथन निर्गमन 3:14 में परमेश्वर के नाम के प्रकाशन को याद दिलाते हैं. इस सुसमाचार में वर्णित किया गया है.

यीशु के सात आश्चर्य कर्मों को यीशु को परमेश्वर का पुत्र एवं मसीह प्रमाणित करने वाले चिन्हों के रूप में प्रस्तुत किया गया है. (2:1-11, 4:46-54, 5:1-57, 9:1-46, 11:1-57, 16:1-14, 15:21, 20:30) यीशु भी स्वयं कई बार अपने आपको परमेश्वर का पुत्र करके संबोधित करता है.

3. यीशु मसीह के व्यक्तित्व एवं कार्यों को प्रगट करने के लिए अनेक प्रतीकों का प्रयोग हुआ.

उदाहरण : मेमना (1:29) मंदिर (2:21), रोटी 6:35, ज्योति 8:12, द्वार 10:9, चरवाहा 10:11, दाखलता 15:1 आदि.

4. पवित्रात्मा

इस पुस्तक की एक ख़ास विशेषता यह है कि , इसमें पवित्रात्मा के कार्यों का वर्णन हुआ है. यूहन्ना ने पवित्रात्मा को नए जन्म को लाने वाला, विश्वासियों में वास करने वाला, उनका सहायक यीशु मसीह को शिक्षा देने वाला, विश्वासियों को सिखाने वाला, सत्य के मार्ग में चलाने वाला, विश्वासियों को आने वाली बताने वाला आदि रूप में प्रस्तुत किया है. (3:5, 7:37-39, 14:16, 26 ,15:16, 16:8-11, 13)

यूहन्ना यह प्रदर्शित करता है कि विश्वासियों के जीवन में केवल पवित्रात्मा के द्वारा ही मसीह का कार्य जारी रह सकता है.

सुसमाचार लिखने की तिथि : लगभग 90 ईस्वी.

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