दोस्तों आज हम संत पौलुस के द्वारा लिखी हुई पुस्तक रोमियो की पत्री का परिचय देखेंगे ये एक Bible study material in hindi है जिसे आप अपनी कलीसिया में एवं हिंदी बाइबिल स्टडी के रूप में पढ़ सकते हैं.
रोमियो की पत्री एक परिचय
इस पत्री के लिखने से पहले पौलुस रोम नहीं गए थे. शायद यरूशलेम से विश्वासी पिन्तेकुस्त के दिन के बाद रोम में गए और कलीसिया का प्रारंभ किया.
पौलुस ने भविष्य में रोमियो जाना चाहते थे और रोम के विश्वासियों से अपेक्षा रखते थे की वे इसके लिए तैयार रहें.
नए नियम में प्रकट होनेवाली पौलुस की पत्रियों में से रोमियो पहली पत्री है परन्तु यह उसके द्वारा लिखी गई पहली पत्री नहीं थी.
पौलुस ने सम्भवत: 57 या 58 ईस्वी में कुरिन्थ के नगर से इस पत्री को लिखा था. उसने इसे अपनी तीसरी प्रमुख मिशनरी यात्रा के दौरान लिखा था.
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इस यात्रा के दौरान यरूशलेम में गरीबों को देने के लिए उसने कलीसियाओं से पैसा इकट्टा किया. पौलुस ने यरूशलेम को पैसे ले जाने की योजना बनाई.
वहां से वह रोम जाना चाहते थे. उसने स्पेन जाने की भी आशा व्यक्त की थी. पौलुस ने इस पत्री का प्रयोग उद्धार के बारे में मसीही सिद्धांत के लिए एक नींव डालने के लिए किया.
रोमी कलीसिया में यहूदी और यूनानी दोनों शामिल थे. पौलुस ने उद्धार के लिए परमेश्वर की योजना में यहूदियों और अन्यजातियों के बीच सम्बन्ध को समझाया.
रोमियो की पुस्तक आत्मिक सत्यों को स्पष्टता से व्यक्त करती है. रोम की कलीसिया ने अभी तक किसी प्रेरित से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी.
पौलुस पौलुस उन्हें सत्य में दृढ़ता से स्थापित करना चाहता था. उसने अपने विषयों को तर्कपूर्ण कर्म में प्रस्तुत किया.
पहले पौलुस ने उद्धार की आवश्यकता को समझाया क्योंकि मनुष्य पापी है. फिर उसने समझाया कि किस प्रकार परमेश्वर यीशु के माध्यम से उद्धार प्रदान करता है.
फिर पौलुस ने मसीह में नए जीवन के विषय में समझाया. रोमियो की पुस्तक में पौलुस ने पुराने नियम से रिफरेन्स का प्रयोग यह दिखाने के लिए किया कि वही परमेश्वर जिसे यहूदी पुराने नियम में जानते थे
अब सभी लोगों के लिए उद्धार लाया है. पौलुस रोमी कलीसिया के अनेक लोगों को जानता था. वह उन सब की गहन चिंता करता था.
स्पष्ट शिक्षा के साथ उसने उन्हें एक पास्टर के रूप में परामर्श भी दिया. पौलुस ने यहूदियों और अन्यजातियों के बीच की समस्याओं के बारे में बातें किया.
पौलुस ने जोर द्देकर कहा, कि वे उस महान उद्धार में सहभागी हैं जिसे परमेश्वर ने उन सभी को दिया है. इस कारण उन्हें एकता में रहना है.
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रोमियो की पत्री अध्यायों का सर्वेक्षण
पौलुस का अभिवादन और प्रार्थना (1:1-17) : पौलुस स्वयं की पहचान बताता है, कि वह सुसमाचार के लिए प्रेरित के रूप में अलग किया गया.
और भेजा गया है. वह परमेश्वर का एक दास है जो प्रेम से प्रभु के सेवा करता है. (निर्गमन 21:5-6) वह बताता है यीशु ही सुसमाचार का केद्रीय भाग है. (1:3-5)
पुनरुत्थान यह सिद्ध करता है कि यीशु ही परमेश्वर का पुत्र है. और विश्वासी लोग संत हैं वे पवित्र लोग जो परमेश्वर के लिए अलग किये ऐ( 1:6-7)
पौलुस अधिकांशत: अपने पाठकों के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देते हुए प्रारंभ करता है. वह परमेश्वर का धन्यवाद करता है कि अनेक लोग रोमियो के विश्वास के बारे में जानते हैं.(1:8-10)
किसी भी समूह या किसी विश्वासी व्यक्ति के लिए एक ऐसा विश्वास होना जो प्रसिद्ध हो एक महान गवाही है. एक ऐसा विश्वास जो दूसरों को इस विश्वास को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करता है.
पौलुस बताता है कि वह रोम की यात्रा करना और वहां पर सुसमाचार प्रचार करना चाहता था. (1:11-15) वह कहता है, मैं सुसमाचार से नहीं लजाता,
इसलिए कि वह हर एक विश्वास करनेवाले के लिए, पहले तो यहूदी फिर यूनानी के लिए, उद्धार के निमित्त परमेश्वर की सामर्थ्य है.
क्योंकि उसमें परमेश्वर की धार्मिकता विश्वास और विश्वास के लिए प्रगत होती है. जैसा लिखा है, “धर्मी जन विश्वास से जीवित रहेगा”. (1:16-17)
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रोमियो की पत्री में मुख्य शब्द
सुसमाचार: रोमियो के प्रारंभ में पौलुस इस शब्द का प्रयोग बार बार करता है. वह साहसपूर्वक प्रचार करता है, कि मसीह में परमेश्वर के कार्य का सुसमाचार सभी लोगो के लिए है जो विश्वास करते हैं. सुसमाचार का स्वभाव ही यह मांग करता है, कि हम उसका प्रचार करें.
धार्मिकता: परमेश्वर के साथ सही सम्बन्ध में रखने के लिए यही परमेश्वर चाहता है. परमेश्वर ही धार्मिकता का श्रोत है. पौलुस रोमियो की पत्री में 35 बार इस शब्द का प्रयोग करता है. (5:17, 9:30)
विश्वास: पुराने नियम में भी, धार्मिकता विश्वास और भरोसे के द्वारा ही आई थी, हमारे कार्य के द्वारा नहीं. पौलुस इस शब्द का प्रयोग 37 बार करता है.
उद्धार: पौलुस इस शब्द का प्रयोग पाप से और उसके परिणामों से छुटकारे के लिए प्रयोग करता है. परमेश्वर हमें पाप की शक्ति से छुड़ाता है.
हम परमेश्वर के संतानों के दौर पर गोद लिए गए हैं. रोमियो पाप की सामर्थ्य से एक विश्वासी की पूर्ण उद्धार के बारे में बताती है.
उद्धार तीन कालों में है. भूतकाल, वर्तमान और भविष्यकाल में. हमें इन बातों में उद्धार पाना है.
पाप की व्यापकता से – हम सभी अधर्मी हैं और हमारे दुष्ट ह्रदयों को पुन:जागरण की आवश्यकता है. (3:10-18)
पाप के दंड से (नरक) से छूटकारे के द्वारा हम बचाए गए हैं. (6:23)
पाप की सामर्थ से – शुद्ध करने के द्वारा हम बचाए जा रहे हैं और मसीह में नया जीवन पा रहे हैं. (6, 8:29)
पाप की उपस्थिति से– महिमा पाने के द्वारा हम बचाए जाएंगे (8:18-23)
सभी लोग पापी हैं : अन्य जाति लोग पापी हैं (1:18-3:20) पौलुस अपने तर्क का प्रारभ यह कहकर करता है कि यहाँ तक कि अन्यजाति भी सही और गलत के अंतर को जानते हैं.
परमेश्वर का आदर न करने के लिए किसी के पास कोई बहाना नहीं है. वे भी न्याय का सामना कार्नेग. उसके अनदेखे गुण
अर्थात उसकी सनातन सामर्थ्य और परमेश्वरत्व, जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के दवा देखने में आते हैं, यहाँ तक कि वे निरुत्तर हैं. (1:20)
उन्होंने परमेश्वर के सत्य को सृष्टि में देखा और फिर गए और अपने अनुचित स्वभाव में अपने ही ईश्वरों को बना लिया. (1:21-23)
वे परमेश्वर को जानते थे पर उसका इनकार किया. अपने ही प्रति उनके मनोभाव ने उन्हें मूर्ख बना दिया. संसार के प्रति उनके मनोभाव के कारण शरीर का गलत प्रयोग हुआ.
इसलिए परमेश्वर ने उन्हें पाप करने के लिए उनकी ही इच्छा पर छोड़ दिया. मनुष्यों ने असत्य और झूठ को चुना और परमेश्वर ने उन्हें चुनने दिया.
उन्होंने सृजनहार के बदले सृजी हुई अर्थात वस्तुओं की उपासना की (1:24-25) परमेश्वर ने हमें अपने स्वरूप में बनाया परन्तु गिरे हुए मनुष्य हमारे स्वरूप में ही ईश्वरों को बनाना चाहते हैं.
हर विचार या रूप जो परमेश्वर के वचन के अनुरूप नहीं है वह एक मूर्ति हैं. हर बार मानव परमेश्वर को किसी झूठे स्वरूप में नीचा कर देते हैं. हमारी नैतिकता नीचे हो जाती है. यह मूर्तिपूजा और मूर्खता का ह्रदय है.
वे तो परमेश्वर की यह विधि जानते हैं कि ऐसे ऐसे काम करने वाले मृत्यु के दण्ड के योग्य हैं, तौभी न केवल आप ही ऐसे काम करते हैं वरन करनेवालों से प्रसन्न भी होते हैं. (1:32)
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यहूदी लोग पापी हैं: पौलुस उन विरोधो का उत्तर देता है जिसे यहूदी लोग उठा सकते हैं. यहूदी होने के नाते वे न्याय से बच नहीं सकते.
यहूदी परमेश्वर की व्यवस्था को जानते हैं और फिर भी असफल हो जाते हैं. (2:1-4)
यहूदियों का यह विश्वास था कि परमेश्वर की दया उनकी ओर है इसलिए उन्हें न्याय का सामना नहीं करना पड़ेगा…हालाकि यह एक गलत सोच थी.
परमेश्वर की कृपा पश्चाताप की ओर ले जाती है. यह यहूदियों के पाप को माफ़ नहीं करती है. आने वाला न्याय निश्चित है. (2:5-11)
क्रोध कम रहा है- न्याय समय के अंत में आएगा. वह हर एक को उसके कामों के अनुसार बदला देगा. (2:6)
पौलुस अनंत जीवन और अनंत क्रोध के बीच अंतर दिखाता है. भले कार्यों में बने रहने से उद्धार कमाया नहीं जा सकता. बल्कि यह सच्चे विश्वास का सबूत है. (2:7-8)
हर किसी को न्याय का सामना करना पड़ेगा. (2:9-10) परमेश्वर न्याय करने में पक्षपात नहीं करता.
यहूदी लोग जब पाप करते हैं तब उन्हें विशेष न्याय की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. (2:11)
न्याय के मापदंड : इसलिए जिन्होंने बिना व्यवस्था पाए पाप किया. वे बिना व्यवस्था के नष्ट भी होंगे. और जिन्होंने व्यवस्था पाकर पाप किया, उनका दण्ड व्यवस्था के अनुसार होगा. (2:12)
यह व्यवस्था मूसा की व्यवस्था है, परमेश्वर ने स्वयं को प्रगट करने के लिए व्यवस्था का प्रयोग किया. यहूदी जो व्यवस्था को जानते हैं लेकिन धर्मी बनने के लिए उस व्यवस्था का पालन भी करना है.
परमेश्वर अन्यजातियों से अपेक्षा नहीं करता कि वे मूसा की व्यवस्था के मुताबिक़ चलें. फिर भी अन्यजाती कुछ कार्यों के द्वारा परमेश्वर को प्रसन्न करेंगे.
वे सही और गलत के अंतर को जानते हैं. मसीही लोग मूसा की व्यवस्था के अधीन नहीं जीते हैं. इसलिए मसीही लोगों को इसे ध्यान से समझने की जरूरत है.
व्यवस्था: इसका स्तर परमेश्वर स्वयं तय करता है. व्यवस्था हमें हमारे पाप को दिखाती है. और हमें अधिक पाप करने को इच्छुक बनाती है.
पौलुस रोमियो में व्यवस्था का प्रयोग 73 बार करता है. इसका सबसे अधिक प्रयोग किया जाने वाला अर्थ बाइबल में पहले पांच पुस्तकों में परमेश्वर की व्यवस्था है.
सम्पूर्ण पुराना नियम है या नैतिक विवेक है. कुछ स्थानों में इसका अर्थ नियम है (3:27) सभी मनुष्यजाति पापी हैं और दंड के योग्य हैं (3:9-20)
परमेश्वर के बिना मनुष्य दुष्टता की ओर झुके हुए हैं, परमेश्वर के बिना लोगों के पास परमेश्वर के लिए भक्ति नहीं है. जो भक्ति का श्रोत है. (3:18)
परमेश्वर धार्मिकता प्रदान करता है. (3:21-31): धार्मिकता यीशु मसीह पर विश्वास के द्वारा आती है, व्यवस्था को जानने से नहीं.
पुराना नियम विश्वास के द्वारा धार्मिकता का प्रमाण देती है. जिस पवित्र सम्बन्ध को परमेश्वर चाहता है उसमें हर कोई कम पड़ जाता है.
और जो कोई परमेश्वर के अनुग्रह से यीशु मसीह पर विश्वास करेगा वो प्रत्येक व्यक्ति धर्मी ठहराया जाएगा. अब्राहम अपने विश्वास के कारण धर्मी ठहराया गया था अपने कामों के द्वारा नहीं.
और वह मूसा की व्यवस्था से बहुत पहले धर्मी ठहराया गया था. इसका अर्थ है धर्मी ठहराया जाना व्यवस्था पर आधारित नहीं है. (3:13-17)
अब्राहम उस मेमने के द्वारा बचाया गया था जिसे संसार की उत्पति से ही मारा गया था. (प्रका. 13:8)
धर्मी ठहराए जाने की आशीषें: (5:1-11) परमेश्वर के साथ हमें शान्ति मिलती है. और हम उसके पास आ सकते हैं.
और हमारे पास परमेश्वर के अनुग्रह का आश्वासन रहता है. हमारे पास परमेश्वर के संगती का आनन्दपूर्ण मेलमिलाप रहता है.
” पाप आदम के द्वारा आया और उद्धार मसीह यीशु के द्वारा आया ”
रोमियो 5:12-21
अध्याय 6 में पौलुस पुराने मार्ग और नया जीवन के विषय में बताता है. और कहता है हम आज्ञापालन के लिए स्वत्रंत हैं. (6:5-10)
और वह इससे जुड़े सारे सवालों का जवाब देता है. पौलुस विवाह का एक उदाहरण देता है. (7:1-6) एक नियम तभी तक राज्य करता है जब तक कोई व्यक्ति जीवित है.
एक स्त्री विवाहित है केवल तभी तक जब तक उसका पति जीवित है, यदि उसका पति मर जाता है तो वह उस नियम से स्वत्रंत हो जाती है. मृत्यु इस संबंध को तोड़ देती है. (7:1)
विश्वासी लोग पाप के शासन के लिए मर चुके हैं. वे उसकी सामर्थ्य से स्वतंत्र हो चुके हैं. पाप के लिए मर जाना व्यवस्था के साथ सम्बन्ध को तोड़ देता है. (7:4)
Conclusion
दिव्य अनुग्रह और इस्राएल (9:1-11:36): पौलुस इस्राएल के अतीत और इस्राएल के वर्तमान समस्याओं को समझाता है.
ये अध्याय इस्राएल राष्ट्र के विषय में है, 12वा अध्याय धार्मिक जींवन जीने के विषय में है एवं 13 वे अध्याय में संत पौलुस धार्मिकता और प्रेम कर्तव्य के विषय में समझाते हैं.
एवं 14 वां अध्याय दूसरे विश्वासियों के साथ सम्बद्ध के विषय में है. वो कहते हैं एक दूसरे का न्याय करने से दूर रहो. परमेश्वर ही न्यायधीश होंगे. (14:1-15:13)
शायद वहां कुछ यहूदी मसीह खान पान के विषय और नियमों को त्यागना नहीं चाहते थे. पौलुस समझाते हैं हम प्रभु को प्रसन्न करने के लिए जीते हैं.
हर व्यक्ति उसके विवेक के अनुसार जीना है. हर व्यक्ति न्याय के दिन लेखा देगा. इसलिए एक दूसरे को ठेस मत पहुँचाओ.
प्रेम से कार्य करो. (14:14-23) एकता में खड़े रहे चाहे बलवान हो या कमजोर …मसीह यीशु हमारा उदाहरण है. (15:1-23)
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